दोपहर के एक बजे का समय। राजगढ़ जिले में सुठालिया के आगे मुख्य सड़क से अंदर की ओर काली मिट्टी के दलदलनुमा रास्ते को करीब 5-7 किलोमीटर पार करके बासखो गांव का नजारा। लगातार होती रिमझिम के बीच सिर पर छाता लगाए पीली, गुलाबी, नीली साड़ियों वाली घूंघट किए महिलाएं एक कच्चे घर की ओर चली आ रही है। इस कच्चे घर में गोबर से लीपा गया बरामदा है जिसमें ये सब आकर बैठती जा रही हैं। यहां पहुंचकर उनके चेहरे पर एक खास मुस्कान आ जाती है। इनके बैठने के ढंग को देखकर ऐसा लगता है कि जल्द ही महिलाओं का ये झुंड या तो भजन मंडली में बदल जाएगा या फिर सावन के स्वागत में कजरी के सुर सुनाई देंगे। पर इन अनुमानों को ताक पर रखते हुए कोई 17-18 साल का एक लड़का यहां आ चुका है। उसकी पोशाक बता रही है कि वह कोई छात्र है। उसके आते ही ये महिलाएं सतर्क हो गई हैं, आसपास कोेई 8-10 पुरुष भी आकर खड़े हो चुके हैं। संबोधन से पता लगता है कि लड़के का नाम पर्वत सिंह है। वो थैले में से एक रेडियो सेट निकालकर इस समूह के बिलकुल बीचों-बीच रखके उसे ट्यून इन कर देता है


यह हैरानी भरा दृश्य है। क्या ये लोग इतनी बरसात में अपना काम-काज छोड़कर इस रेडियो पर समाचार या क्रिकेट कॉमेंट्री या फिर फिल्मी गीतों को सुनने इकट्ठे हुए हैं? मेरे चेहरे के भाव उन औरतों में ही बैठी मांगी बाई बहुत देर से पढ़ रही थी। उसने कहा ‘‘अभी खिड़की वाली बाई आएगी, उससे मिलने, उसे सुनने आए हैं हम लोग।’’ मेरे सब्र की सारी सीमाएं अब तक टूट चुकी थी। ये लोग निमाड़ी के सहारे हिंदी बोल रहे थे और मुझे लग रहा था कि शायद मैं ठीक-ठीक समझ नहीं पा रही हूं। मेरी दुविधा को भांपकर पर्वत सिंह मेरे पास आया और बोला ’’इस गांव में 200 घर हैं, सड़क आपने देख ही ली कि कैसी है, अखबार यहां हफ्ते-दस दिन में शहर जाकर पढ़ने वाला कोई लड़का ले आए तो ही आता है। मन लगाने का साधन सिर्फ ये रेडियो है जो हाल-समाचार दे देता है।’’  मैंने पूछा ‘‘ये खिड़की वाली बाई....?’’ बोला, ‘‘वो मेंहदी दीदी हैं न.. वो और फुंटी भैया एक कार्यक्रम लेकर आते हैं - ‘खिड़की मेंहदी वाली’। उन्हें ये लोग बहुत चाव से सुनते हैं। अभी भी उस कार्यक्रम को सुनने ही इकट्ठे हुए हैं।’’

अचानक एक गीत शुरू हुआ और सब शांति से उस रेडियो की ओर ध्यान लगा गए, वहां बैठी एक महिला ने मुझे भी अब चुप रहने को कहा। करीब 13-14 मिनट बाद वो कार्यक्रम खत्म हुआ। मातृ व शिशु स्वास्थ्य से जुड़ी आवश्यक बातों को नाटक-गीत संगीत और डॉक्टरी सलाह के माध्यम से इस कार्यक्रम ‘‘खिड़की मेंहदी वाली’’ में रोचक ढंग से पिरोया गया है जो शायद इन लोगों को पसंद आ रहा है।

कार्यक्रम खत्म होने पर मुझसे नहीं रहा गया और मैंने पूछ ही डाला, ‘‘इस 15 मिनट के कार्यक्रम के लिए आप लोग इस बारिश में आए। ऐसी भी क्या है इसमें?’’ मैंने उन्हें यह बात नहीं बताई कि मैं इस कार्यक्रम से जुड़ी हुई हूं? मैं यह जानना चाहती है कि वे आखिर इस कार्यक्रम के प्रति क्यों दीवाने हैं? 

जवाब बिलकुल रॉकेट की तेज़ी से आया, ‘‘उंगलियों पे गिन लो बस उतने ही रेडियो हैं इस गांव में। सब औरतन की बात करती है मेंहदी दीदी, उनको सुनना अच्छा लगत है इसलिए काम निपटा के खटके से यहां जमा हो जाए हैं। धनी और धनिया (पति-पत्नी) अगर मेंहदी दीदी की बात सुन लें और बच्चा ने टीका लगवाएं उसके खान-पान को ध्यान दें तो सब बढ़िया हो जाए।’’ इस पर पास ही बैठी बलब बाई ने समझदारी भरे अंदाज में कहा, ‘‘दो बच्चा के बीच तीन साल का अंतर रखना ही ठीक है, मेंहदी दीदी ने बताया है, वो हमारे सुख-दुख सब जानती हैं, एक दिन पर्वत के फोन से उन्हें घंटी दी थी तो उनका फोन भी आया था।’’

मैं हैरान हूं, क्या फोन पर बात कर लेने से दुख कट जाते हैं? क्या रेडियो पर सुनाई देने वाली आवाज़ें लोगों को रोज़ एक नियत समय पे ऐसे अपने पास जुटा सकती हैं? क्या औरतों में अपने और अपने बच्चों की सेहत से जुड़ी बातों की समझ ‘रेडियो’ इस तरह से बना सकता है?

सभी सवालों का जवाब पर्वत सिंह की मां गीता बाई के एक ही वाक्य में छिपा है, ‘‘खिड़की वाली बाई हमारी बात समझती है, उस पर विश्वास है कि वो जो कहेगी उसे मानकर हम खुश रहेंगे क्योंकि वो हमारी दीदी है और हमें खुश देखना चाहती है।’’

वाकई, बासखो जैसे ग्रामीण और पिछड़े इलाके में रेडियो उस ब्रम्हास्त्र सा काम कर सकता है जो संसाधनों और सुविधा की सूचना जन-जन तक पहुंचा दे। बासखो में सूचना और सूचना देने वाली बासखो की मेंहदी दीदी दोनों को सम्मान मिल रहा है। निश्चय ही यहां रेडियो परिवर्तन की ज़मीन मज़बूत कर रहा है।