मुजफ्फरपुर   के  रामबाग     इलाके  में स्थित आंगनवाडी सेंटर पहुंचना बारिश में और ज्यादा  मुश्किल हो जाता  है/लगातार  ३ दिन  चली  मूसलाधार  बारिश  ने  सारे मुजफ्फरपुर का हाल वैसे भी बदल दिया था /  हर तरफ कचरा पानी के साथ बहता दिखाई दे  रहा था/अधबने  दुर्गा पूजा  पंडाल भी सड़क रोके  खड़े  दिखाई  दिए   /ऐसे में मैं  वैजन्ती कुमारी  से मिलना चाहती थी / वैजन्ती तक पहुंचना सड़क पर पानी से चले संघर्ष के बाद एक बड़ी जंग जीतने सा था/.करीब ४५ मिनट के सफ़र के बाद जब मैं वैजन्ती के पास पहुंची तो उसे पहली बार देखकर ऐसा लगा मानो दुर्गा खुद कुछ समय पहले ही मिलने चली आई हों.लाल साडी,लाल बिंदी,लाल महीन मोतियों वाला मंगल सूत्र ,लाल पीली चूड़ियाँ और चेहरे पर संतोषी मुस्कान.दोनों हाथ जोड़कर अभिनन्दन करने वाली ये महिला जो मेरे सामने खड़ी थी,इसे ही लोग रामबाग में वैजन्ती दीदी कहते हैं/तीन बच्चों की माँ वैजन्ती ,दरअसल रामबाग स्थित आँगन वाडी कार्यकर्ता है ,थोड़ी देर संकोच में धीरे धीरे बातचीत जारी रखने के बाद वैजन्ती ने खुलना शुरू किया.   उसे अपने सेंटर से जुडी हर संख्या उंगली पर याद है. ...३ किशोरियां,८ धात्री  माताएं,४० स्कूल पूर्व बच्चे,४० पोषण आहार के लिए आने वाले बच्चे......उनकी हर बात वैजन्ती जानती है/
.वो खुश है की सुबह ९ से दोपहर १ तक वो जिस काम में लगी है उसे पूरी ईमानदारी  से पूरा कर रही है/.डोम पट्टी में रहने वाले बच्चों का उसकी आंगनवाडी में आने और जुड़ जाने की घटना बताते हुए  उसका  गर्व उसकी आवाज़ में सुनाई देने लगता है/वो बताती है की कैसे  वो उन् परिवारों को मनाती   है  जिन्हें इस बात की गारंटी  चाहिए होती है कि उनके बच्चे को किसी हरिजन बच्चे क साथ नहीं बैठाया  जायेगा/"
वैजन्ती के लिए बड़ी चुनौती है उसके क्षेत्र  के कचरा बीनने  वाले परिवार जो अब भी बच्चों को स्कूल भेजने  की बजाय कचरे के ढेर के पास भेजना ज्यादा उपयोगी मानते हैं."हम बोले आप बच्चा की कमाई खाइएगा या खुद कमा कर उसका पेट भारियेगा? २-३ दिन  बात समझता है और फिर बच्चा लोगों को काम पर लगा देता है." साफ़ सफाई के प्रति वैजन्ती सख्त दिखाई दी.उसने अपनी सहायिका को भी हिदायत दी हुई है की आंगनवाडी में आने वाले हर बच्चे का वो हाथ  ,चेहरा  और पैर वो साफ़ करा कर ही उसे बैठाएगी/"टीकाकरण के दिन आप कभी भी यहाँ आ जाइये आपको एक भी बच्चा गन्दा नहीं दिखाई देगा",ये वैजन्ती का दावा है.वो परेशान है की इतने गरीब परिवारों से आने वाले बच्चों को एक बजे बाद रात तक कई बार कुछ खाने को नहीं मिलता तो पोषण की देख रेख ठीक तरह से कैसे हो पायेगी.जब वो कहती  है कि 'अगर टीकाकरण वाले  दिन माँ व्यस्त हो तो अब पिता लोग भी बच्चा लेकर आ जाता है...सुधर न रहा है!' तब उसकी आवाज़ और आँखों में एक अलग ही चटक अभिव्यक्ति अनुभव कि जा सकती है.निश्चित रूप से वैजन्ती बहुत ख़ूबसूरती से वो कर रही है जो हर एक अच्छे आंगनवाडी वर्कर  से अपेक्षित  है/
"दुबली पतली सांवली लड़की,गज़ब के आत्मविश्वास से भरपूर...कंधे पर एक झोला.....उस झोले में पूरी दुनिया.खानाबदोश सा जीवन ,आँखों में एक अजब से प्रतिशोध की ज्वाला ." ये वो तस्वीर है जो मैंने देखी थी २ महीने पहले.दरअसल इस लड़की  को सामने से तो अब तक नहीं देख पायी हूँ पर इस  से रूबरू होनेवाले मेरे साथी अक्लाख ने ऐसा शब्द चित्र  खींचा की मैं इससे बात करने को बेचैन हो गयी.करीब २-३ दिन के प्रयास के बाद आखिर उसका नंबर भी मिल ही गया.फ़ोन नंबर मिलते ही बेचैनी और बढ़ गयी ..मुझे खुद से डर लग रहा था कि उसका दबंग रवैया मुझे चारों खाने चित न कर दे.कहीं उसका कोई उत्तर ऐसा न हो कि मेरे हाथ पाँव फूल जाएँ.सच कहूं तो मैं उसकी सच्चाई और बेबाकपन से डर रही थी.मैं डर रही थी उस एक महिला से जिसमे दुर्गा का शायद रूप है...वो रूप भी ऐसा कि गाँवों कि महिलाएं और कॉलेज की युवतियां अपने नाम के आगे अब उसका नाम लगाने लगी हैं.शायद कहीं ये नाम मुजफ्फरपुर,वैशाली और समस्तीपुर के आसपास के गाँवों की महिलाओं को सुरक्षा और आत्मबल प्रदान करता है.
 
बेचैनी ख़त्म करने का एक ही जरिया था...डर को ताक पर रख के फ़ोन पर बातचीत/फ़ोन लगा...दूसरी ओर से एक महीन आवाज़ आई...मैंने तुरंत पूछा....भारती जी बोल रही हैं?जवाब आया ...हां/मैंने कहा...आपसे थोड़ी बात करनी है.......वो बोली....मजदूर दिवस की तैय्यारियों में व्यस्त हूँ पर फिर भी बात तो करुँगी...आप १० मिनट में फ़ोन लगाइए./आवाज़ बहुत जानी पहचानी लगी.ऐसा लगा मानो...मुजफ्फरपुर की कोई आम लड़की ने फ़ोन उठाया हो/पर ये लड़की"भारती कुशवाहा"आम नहीं कुछ ख़ास है ये भी मैं जानती थी.एक बलात्कार के साक्षी के तौर पर टिके रहना...गवाही देते रहना.. हर  आम लड़की के बस की बात नहीं.फिर गुंडों द्वारा डराए जाने पर पति समेत अपना गाँव छोड़ना ,शहर छोड़ा ...आगरा में एक नयी दुनिया बसाई....दो बच्चों के भरण पोषण के लिए पति को वहीँ छोड़ कर वापिस मुजफ्फरपुर लौटी तो इस बार ज़मींदार परिवार की इस लड़की को दलितों की बस्ती में शरण मिली.बस्ती की लडकियां स्कूल के रास्ते में पड़ने वाले शराब के ठेकों के बाहर बैठे अधेढ़ उमरी नशेड़ियों और शराबियों से परेशान थी .....भारती ने लड़कियों को गोलबंद किया और पहुँच गयी ठेके पर...पहले पहल विनम्र निवेदन कर के ठेके के मालिक से ठेका बंद करने को कहा और फिर न मानने पर ठेके पर धावा बोलकर हमेशा के लिए ठेका ख़त्म कर दिया.इसके बाद तो जैसे शोषण और प्रताड़ना से पीड़ित लडकियां भारती के समूह में जुडती चली गयी.आज की तारीख में मुजफ्फरपुर और आसपास के इलाके में धन्धेबाज़ भारती के नाम से कांपते हैं,करीब दो हज़ार महिलाओं का समूह भारती के साथ जुड़  चुका है....ये न सिर्फ अब न्याय के लिए लड़  रहे हैं बल्कि,गाँवों में बच्चों की पढाई और पढाई के लिए ज़रूरी अधोसंरचना के लिए भी कार्यरत हैं.
 
खैर ...दस मिनट बाद मैंने उससे पूछा कि कहाँ रहती हो आजकल?जवाब मिला......भैया दीदी लोग जहाँ जिस गाँव में रुकवा दें वहां/फिर पूछा सामान? जवाब मिला......है न एक "झोला."...२ जोड़ी कपडे,एक कॉपी,पेन,गोंद....और क्या चाहिए? बच्चे....?जब ये पूछा तो बोली......१५ दिन पहले मिली थी.
वो पति जिसके साथ दुनिया बसाई.....?...कुछ रूककर बोली......सुना है दिल्ली में हैं..और दूसरी शादी कर चुके हैं?
मैंने पूछा...डर नहीं लगता ...२७ साल कि उम्र में इतने दुश्मन बनाकर?जवाब आया...."जब तक डरती थी..सबने डराया....अब नहीं डरती हूँ तो लोग मुझसे डरते हैं?
कई बार लोग तुम्हें नक्सली कहते हैं?...वो बोली अगर एक भी सुराग मिल जाए तब बात कीजिएगा.
मैंने पूछा अगर कभी कोई कारण तुम्हें जेल ले जाया जाए तो?
जवाब मिला...हम अहिंसक आन्दोलन करते हैं...प्रशासन को जगाते हैं....न्याय कि गुहार लगाते हैं.इसलिए   ऐसा होगा नहीं..और अगर हो ही जाए तो बाहर ही कौन सा सुखी हैं?
मैंने कहा गाने सुनती हो?उसने कहा...गाती भी हूँ...और फिर बेधड़क गाने लगी.
वो दिल्ली आना चाहती है....सियासी टिकट के लिए नहीं.....अपने पति से एक बार मिलने भर को.उसे रेडियो सुनने कि चाह है...चाहती है कि लोग कोई उससे सिर्फ भारती भी बुलाये.....भारती दीदी या भारती जी नहीं.यकीनन इस लड़की में कुछ तो है......तीन बार धंधेबाजों और गुंडा तत्वों ने इसे मौत के मुहं  तक पहुँचाया और ये हर बार उठी दुगने जोश के साथ.जग अभी जीता नहीं....ये कभी हारी नहीं.मुजफ्फरपुर में अपने आप में अब एक आन्दोलन है "भारती"/१ घंटे और ११ मिनट की बातचीत में "भारती" की कई बातों ने मुझे झक झोरा...कई ने सिखाया,और कई चित्त कर गयीं.सही गलत से परे ये आज एक बहुत बड़ा सच है की भारती करीब २००० महिलाओं को बल देने वाली शक्ति का नाम है.




 
 कई दिनों बाद आज एक बार ऐसा लगा मानो बचपन में माँ से सुनी कहानियों की बूढी पर खूबसूरत परी जिसे माँ  परियों की नानी कहा करती थी ,वो खुद चलकर मिलने आई हो.
चांदी से सफ़ेद बाल,आँखों में चमक और बातों में खूब सा स्नेह.८४ वर्षीय कामिनी कौशल को देखकर मेरी पहली प्रतिक्रिया बिलकुल ये ही थी.अपने समय की मशहूर अदाकार रहीं कामिनी से बातचीत की शुरुआत में ही मुझे समझ आने लगा था की क्यूँ दिलीप कुमार साहब भी अपनी आत्मकथा में इनसे पहली ही नज़र में आकर्षित होने की बात लिखने से नहीं चूके.१९४६ में नीचा नगर नामक फिल्म से अपना फ़िल्मी सफ़र शुरू करने वाली कामिनी,जिसने बाद में शहीद और शबनम जैसी हिट फिल्म्स दी और फिर लक्स का पहला खूबसूरत चेहरा भी चुनी गयीं,अब बहुत आगे निकल आई हैं.१९४६ में नीचा नगर में काम करने के एक साल भीतर शादी की,पति के साथ मुंबई आयीं और फिर करियर आगे बढाया/१९६५ तक मुख्य भूमिकाओं के बाद चरित्र अभिनेत्री के तौर पर पारी शुरू करते हुए १९८०तक  लगातार फिल्में करने क बाद,अब वो बच्चों के लिए कहानी लिखती हैं,कठपुतलियां बनाती हैं और फिल्में भी.
अभी लखनऊ में हुई मुलाक़ात में एक खूबसूरत गुडिया और दो अपने ही हाथ से बनाये पुतले दिखाए,आँखों में इतनी चमक थी जैसे अभी बहुत कुछ करना बाकी हो.मीडिया से लगातार ३ घंटे मिलने के बाद बोलीं "थोडा आराम कर लूं...अब गला भी साथ नहीं दे रहा".वाक्य में निवेदन का स्वर मुखर था,पर पानी पीकर और २० मिनट सुस्ता कर जैसे वो फिर १९४६ वाली कामिनी कौशल हो गयीं,उठकर बोलीं...."कहिये कहाँ चलना है?"
इस अदाकारा से उनकी उम्र के इस पड़ाव में मिलना मेरे लिए बिलकुल परियों की कहानी को जीने जैसा था.
खैर,जो भी हो ये मुलाक़ात यादगार है.  
पिछले दिनों मेरे रांची दौरे के दौरान एक बार फिर मेरी उससे मुलाक़ात हुई.एक बार फिर जी चाहा कि समय या तो रुक जाए या फिर कम से कम १५ साल पीछे चला जाए.मेरा मन बेचैन हो उठा.मैं चाहती थी उसकी छाँव में बैठना,कुछ शरारतें,कुछ हरकतें याद करना.स्कूल के दिनों से ही मुझे वो बहुत  अच्छा लगता था.आज इतने साल बाद मिलने पर, उससे जी भर मिल लेने की इच्छा पर काबू पाना मुश्किल लग रहा था.ऐसा लगा कि जैसे कोई सपना जाग गया हो.
स्मृतियाँ जैसे सामने टहलने लगी...छत्तीसगढ़ की मिटटी  की सौंधी खुशबू अचानक झारखण्ड में याद आई.याद आया "कोरबा" और वहीँ स्थित NTPC TOWNSHIP का केंद्रीय विद्यालय परिसर और उसको दोनों ओर से घेरे हुए खेल का विशाल मैदान.कभी कभार खिडकियों से बाहर सड़क पर गाड़ियों की आवाजाही देखते बच्चों में, एक मैं भी हुआ करती थी.फिर यकायक याद आई वो अजीब सी बात जो एक दिन मेरी एक बेहद घनिष्ट सहेली ने उन्ही खिडकियों से बाहर झांकते हुए  समझाई थी.बोली....."अपने स्कूल को चारों ओर से घेरे पलाश के पेड़ों को देख रही हो....इनके कारण ही हम लोग खुश हैं.जितने पलाश आस पास रहेंगे उतनी खुशियाँ हमारी होंगी". अब सोचने में कभी कभी शर्मिंदगी भी होती है..पर तब चुपके से मैं स्कूल की छुट्टी होने पर हर एक पेड़ के नीचे खड़े होकर उन् फूलों तक पहुँचने की कोशिश भी करने लगी थी ...ये सिलसिला तब तक चला जब तक मैंने ३-४ पलाश के खूबसूरत फूल सुखा कर अपनी कॉपी के पन्नों के बीच में दबा नहीं लिए.शायद ,वो खुशियों पर कब्ज़ा कर लेने की एक कोशिश भर थी.होली के बीतने के कुछ ही दिनों में ये पलाश भी गायब हो जाते और मैं अपने में खुश रहती कि मेरे पास वो पलाश फिर भी हैं.

उस दिन रांची से खूँटी की ओर जाते वक़्त सड़क के दोनों ओर मेरी खुशियों का वो दोस्त खड़ा मिल गया  था.उसके पास कई सवाल मेरे लिए तैयार थे .ऐसा लगा जैसे कह रहा हो "मुझे छोड़ कर तुम दिल्ली में कहाँ गुम हो गयीं?मैं वही तो हूँ जिसे अपनी कॉपी के पन्नों के बीच देख कर तुम गर्वीली मुस्कान बिखेर देती थी.क्या अब तुम मुझे भूल चुकी हो या फिर मुस्कुराने का कोई और बहाना ढून्ढ लिया है शहर में.?"
बहुत मन हुआ कि ड्राईवर से निवेदन करूं कि वो कुछ देर को गाडी उस सड़क पर कहीं किनारे खड़ी कर ले.....ताकि मैं इन् चटक पलाश के फूलों में एक बार फिर बचपन और कोरबा में छूट चुकी उस गर्वीली मुस्कान को अपने होठों पर सजा सकूं.
यहाँ दिल्ली में सड़कों के किनारे लगे होर्डिंग्स  और शहरी पेड़ों के बीच आज रांची से वापिस लौटकर मुझे मेरा वो बिछुड़ा दोस्त बहुत याद आ रहा .शायद पलाश या गुलमोहर जैसे दोस्तों की कमी कोई भी खूबसुरत होर्डिंग या करीने से लगाये गए पेड़ पूरी नहीं कर सकते.पलाश ...एक लम्बे इंतज़ार के बाद मिली ख़ुशी का परिचायक है,पर हाँ अब १५ साल बाद पूरी समझदारी से मैं ये ज़रूर कह सकती हूँ की खुशियों को कॉपी के पन्नों या फिर कहीं और क़ैद करना नामुमकिन है.
 
खैर....पलाश तुम खिलते रहना और यूँ ही मिलते रहना ताकि मैं मुस्कुराती रहूँ.
एक आधी बनी स्कूल इमारत की बस्ती में बैठे ६० बच्चे कल अपनी मैडम लोगों से एक अलग ही पाठ पढने में जुटे थे /उन्हें बताया जा रहा था की रेडियो वाले दीदी भैया आयेंगे तो उनके सामने दुआ सलाम कैसे करनी है,रेडिओ पर बोलने वाली आवाज़ दर असल उन्ही दीदी भैय्या की होती है ,बच्चे हैरान थे की रेडिओ पर बोलने वाले क्या इतने खाली होते हैं कि रांची से यहाँ इतने अन्दर टूटी फूटी सडकों को लांघ के हमसे मिलने आ रहे हैं/बहरहाल,हम लोग अपने ऍफ़ एम् रेडिओ कि ओर से रांची से खूँटी जाते हुए हटिया से थोडा आगे चलकर एक कटे हुए रास्ते पर चल पढ़े थे /करीब ५-६ किलोमीटर के ऊबध खाबड़ रस्ते को पार कर हम पहुंचे गाँव "मुन्दिटोला"/
इस गाँव में घर इतनी दूर थे कि हम अचरज में थे कि स्कूल वालों के लिए बच्चों को इकठा करना कितना मुश्किल होगा.खैर,वहां जाने पर ३ साल से १२ साल तक के बच्चे एक ही कमरे में पढ़ते दिखे.घुसते ही हमारा स्वागत एक स्वर में किये गए अभिवादन से हुआ/ साफ़ था कि बच्चों की  ट्यूशन जम के ली गयी है/एक एक बच्चा  हमें अपनी नज़रों से नाख़ून से सिर तक नाप रहा था.हेडफोन .रेकॉर्डर,mike सबको छू कर देखने कि चाह उनकी आँखों में साफ़ थी.वो हमें ऐसे देख रहे थे कि जैसे किसी दूसरे गृह के प्राणियों को देख रहे हों /
जब मैंने बच्चों से बात की तो हर एक बच्चा अपना गाना सुनाना चाहता था . शहर के लोगों के कैमरे में वो अपनी तस्वीर शहर भेजना चाहता था.

दूसरी ओर, स्कूल बिल्डिंग निर्माण से ज्यादा  मुस्तैदी से शौचालय निर्माण में मजदूर जुटे हुए थे /हम खुश थे कि बच्चों के लिए शौचालय बन रहा है...बाद में स्कूल संचालक ने बताया कि दर असल कुछ फिरंगी १५ दिन बाद इस स्कूल भवन और परियोजना का निरीक्षण करने आने वाले हैं इसलिए शौचालय निर्माण बेहद ज़रूरी हो गया है.हमने पूछा...बच्चे पानी कहाँ पीते हैं?जवाब मिला...पास ही नदी के पास जो गड्ढों  में पानी जमा है वहां ऊपर का पानी पिया जा सकता है या फिर स्कूल परिसर में जो कुआं है वहां से भी पानी निकालकर  पिया जा सकता है.हमने कुआं और पानी दोनों देखा ...पानी का पीलापन हमारी प्यास सुखा गया.

 
जल  ,जंगले ज़मीन की लड़ाई लड़ने वाले आदिवासी अब झारखण्ड बन जाने के बाद भी कमोबेश दोयम दर्जे कि ज़िन्दगी जी रहे हैं.हम सब नक्सल्वाद को लेकर चिंतित तो हैं पर चिंता आज भी विदेशियों और उनकी ज़रूरतों की ही ज्यादा है.हम चाहते हैं कि सुविधाएं पहुंचें पर सड़कें आज भी इन् गाँवों तक नहीं पहुंची तो सुविधाएं तो न जाने कब पहुंचें!
रेडिओ कार्यक्रम के बहाने ही सही.पर हम "मुन्द्रितोला" तक पहुँच ही गए....हमने कुछ सपनीली आँखें....खूब सारी इच्छाएं और तंत्र की मजबूरी देखी/कुछ देर के लिए बच्चे मुस्कुराये भी....पर पता नहीं कब ये खिल खिला पायेंगे.
मेरे लिए ये गाँव एक बहुत  बड़ा सबक है....ये समझ लेने का कि हमारा बचपन और हमारे आसपास शहरों में पल रहा बचपन काफी खुशनसीब रहा है. कि इसे इन टूटी फूटी सड़कों से किसी शहरी  के आने का इंतज़ार नहीं
 करना पड़ रहा /
 "मैंने सिर्फ उसका नाम सुना था ,फिर फ़ोन नंबर भी मिल गया.सोचा क्यूँ न बात की जाए.फ़ोन मिलाया तो लगा कि जैसे किसी अधेड़ उमरी जीवंत आवाज़ से मुलाक़ात हुई हो."बोला, शेफालीजी ऐसे कैसे बात करूं?आइये मिल के बात करते हैं.उसके बुलाने में अपनापन था.मैंने पहली फुरसत में ही उससे मुलाक़ात तय की.दक्षिण दिल्ली की एक संभ्रांत कालोनी में उसका दफ्तर था जहाँ वो मेरा स्वागत करने पहले से मौजूद था.दरवाज़े पर मुलाक़ात हुई तो कद काठी से सेना का जवान सा लगा.हाथ मिलाकर बोला "मैडम जी ,आप फ़ोन पर मुझसे ही बात कर रही थी ,मैं ही हूँ हरीसिंह.

मैं जल्दबाजी में थी ,पर वो....... बिलकुल निश्चिन्त .उसने मुझे पहले अपना ऑफिस घुमाया,दो कप चाय बनाने के लिए कैंटीन वाले को आवाज़ लगायी,और फिर बातों में लग गया.मैं उसे बार बार टोक रही थी,पर वो था कि उसकी बातें थमने का नाम ही नहीं ले रही थी.

आखिरकार अपने ऑफिस के सभी पोस्टर्स और "नेशनल एड्स कण्ट्रोल बोर्ड "की सभी बातें बताने के बाद वो थक गया.बैठा ....और ३-४ कैप्सूल्स खाने के बाद बोला-"अब कहिये मैं आपकी क्या मदद कर सकता हूँ?"मैंने कहा...रेडियो कार्यक्रम बनाने के लिए HIV PATIENT से मिलना है. वो तपाक से बोला "मिल तो रही हैं आप'.मैं सकते में थी ,पहले ऐसे जतलाया कि सुनाई नहीं दिया और फिर जब वो दुबारा ये ही बोला तो सीधे से कह डाला "क्या आपसे खुल के बात हो सकती है?"उसका जवाब था कि मैं तो जब से आप आयीं हैं तब ही से "खुल के " बात कर रहा हूँ.

खैर..बातचीत शुरू हुई.उसने अपनी रिहाइश दिल्ली की ही बताई.छोटी उम्र में शादी,पहलवानी का शौक,माँ का गुज़र जाना,दो बच्चों का ज़िन्दगी में आना,अच्छी बीवी सब कुछ....साथ ही साथ HIV निकलना ...और इलाज का संघर्ष भी.

इस पूरी बातचीत के दौरान मेरे अन्दर का मीडियाकर्मी हैरान और परेशान रहा.उसकी हंसी......उसकी बुलंद आवाज़.....NACO की तारीफ़ में कहे जा रहे शब्द मेरी बेचैनी बढ़ा रहे थे."इसे क्या किसी ने पढाया है , साक्षात्कार कैसे दिए जाते हैं?बोलना क्या है?बैठना कैसे है?"इस तरह के भाव ज़ेहन में आकर जाने का नाम नहीं ले रहे थे .कभी कभार खुद की सोच पर शर्म सी भी आई.लगा"एक इंसान बीमार है पर खुश भी तो इसमें तकलीफ क्या है?"उसने मुझे बताया कि दूसरे चरण कि दवाओं ने अब उस पर असर करना बंद कर दिया है.एक लड़की कॉलेज में भी है.वो खुद HIV PATIENTS को जागृत बनाने के कार्य में सक्रिय है.तीसरे चरण कि दावा शुरू करनी है......................................मतलब?

"मतलब..................इसके बाद कुछ और महीने ....दिन या साल/"उसने बिना ठिठके जवाब दिया.जब आँख न खुले....समझो.....चले !

मैं सकते में थी ,कोई इस तरह की बात कहते हुए इतना सहज कैसे हो सकता है?मेरे सवाल ...और उनके शब्द छोटे पढने लगे."क्या कोई मलाल?"वो बोला......सिर्फ एक!

मैंने पूछा...."क्या"? वो बोला....छोटी बिटिया!

"क्यूँ"....वो बोला....रोज़ हाथ में एक गिलास पानी और मेरी दवाएं लेकर मेरे पास आती है ,मेरा ध्यान रखती है.

"तो मलाल कैसा?"............उसकी एक आँख से आंसू की सिर्फ एक बूँद टपकी...जैसे वो संभाल न पाया हो......".वो दवा और वो गिलास मेरे हाथ में होना चाहिए था."

"क्यूँ?"................................वो अर्धविक्षिप्त है......बीवी ने मजबूरी में.....उसके और मेरे इलाज के बीच मेरे इलाज को चुना और पैसे मेरी ज़िन्दगी लम्बी करने को खर्च किये गए.

"फिर?"...........................अब वो १७ साल की है,मैं तो चला जाऊंगा....पर उसके लिए कुछ नहीं कर पाया.लोग अपने बच्चों और परिवार के भविष्य के लिए इंतजाम करके जाते हैं.मैं लाखों का कर्जा इनके लिए छोड़ कर जाऊंगा.

अचानक वो संभला ......बोला......पर शेफालीजी.......अब जब तक ज़िन्दगी है........मैं जीयूँगा और कई साल जियूँगा.....मैं अपना पूरा ध्यान रख रहा हूँ ताकि तकलीफ बढे नहीं.मुझे अपनी जिम्मेदारियों का भास् है.

उसके आंसुओं ने जैसे मुझे अपराधबोध से भर दिया....."आखिर क्या ज़रुरत थी इस सवाल की?क्या वो मुस्कुराता चेहरा बर्दाश्त नहीं हो रहा था?"

पर फिर यकायक लगा......कितनी शिकायतें होती  हैं हमें कभी खुद से, ज़िन्दगी से,माँ-बाप से,अधिकारियों से,बच्चों से,तंत्र से..........कितने खुश हैं हम.हर रात मौत के और नज़दीक आने का भय नहीं,किसीकी आँखों से टपकते आंसुओं में बहती दिखती खुद की मौत नहीं.किसी के सिंदूर में दीखता लाखों का कर्जा नहीं.

फिर हम अपनी ज़िन्दगी में छोटी छोटी बातों पर मायूस क्यूँ हैं?जब हरीसिंह इतनी बीमारियों से जूझने के बाद......अपनी मौत को पल पल करीब आता देखने के बाद अपनी ज़िन्दगी से कोई ख़ास शिकायत नहीं करता इसे बस जी भर के जी लेना चाहता है.तो......हम क्यूँ नहीं?
अब तक सुना था कि ‘ममता’ और ‘आशा’ को सिर्फ महसूस किया जा सकता है।अब, तीन दिन के अपने गुजरात प्रवास के बाद मैं दावे के साथ कह सकती हूं कि ‘ममता’ को देखा और ‘आशा’ को सुना भी जा सकता है।

गुजरात के आदिवासी बहुल पर औद्योगिक ज़िले वल्साड में धर्मपुरा ब्लाक में ‘मान’ नदी के मुहाने पर बसा है गांव ‘शेरीमल’ । करीब 3000 की आबादी वाला यह गाँव आज गुजरात के ही बाकी 26 ज़िलो के सभी गाँवों का प्रेरणास्रोत है।यह कहना मुश्किल है कि यहाँ ‘आशाओं’ का संगीत ममता का सृजन कर रहा है या ‘ममता’ की प्रेरणा से ‘आशाओं’ का संगीत उत्पन्न हो रहा है।

‘शेरीमल’ हमारी आपकी तरह ग्रीटिंग कार्ड कंपनियों की कृपा से साल में एक दिन ‘मातृ दिवस’ मनाने की बजाय, हर महीने में एक दिन ‘ममता दिवस’ मनाता है। ‘शेरीमल’ को एक नहीं पांच-पांच आशाओं का सहारा है। इन ‘आशाओं’ के सहारे ‘शेरीमल’ स्वस्थ्य भी है और सचेत भी।

नीता, मनीषा,उषा,स्नेहल और कल्पना ये वो पाँच आशाएं हैं जो ‘शेरीमल’ में रहने वाली धात्री माताओं से लेकर बुज़ुर्गों तक के स्वास्थ्य की कड़ी निगरानी रखे हुए हैं। दरअसल,राष्ट्रीय स्वास्थ्य एंव पोषण आहार कार्यक्रम के तहत गाँव में तैनात महिला स्वास्थ्यकर्मियों को ‘आशा’ का संबोधन दिया गया है। आदिवासी इलाकों में प्रत्येक 500 की आबादी पर एक ‘आशा’ की नियुक्ति का प्रावधान है। वलसाड ज़िले के 629 गांवों में ये नामित और नियुक्त आशाएं ‘ममता’ का सृजन कर रही  हैं और इस सृजन की शुरुआत ‘शेरीमल’ से ही हुई है। राज्य सरकार और यूनिसेफ के संयुक्त प्रयासों का यह ‘ममता अभियान‘ दरअसल एक प्रयोग के तौर पर ‘शेरीमल’ में सन 2006 में शुरू किया गया और फिर धीरे-धीरे ये वलसाड ज़िले के बाकी के गाँवों में भी फैलता गया।

एक तरह से, ये अभियान ग्रामीण शिशु स्वास्थ्य और पोषण संबन्धी सभी सरकारी योजनाओं और यूनिसेफ की अवधारणाओं के बेहतरीन समन्वय का नतीजा है।
मेरे अंदर अपनी जिंदगी और इस छोटी सी जिंदगी में शामिल बहुत सारे लोगो के प्रति अहोभाव है। मुझे हर वो आवाज पसंद है जो अंदर या बाहर बदलाव के लिए हो। मुझे हर वो गीत प्यारा है जो आंखो में मीठे आंसू लाता हो। मुझे हर वो शख्स पसंद है जो जो बेखयाली में झूम कर गाता हो। मैं हर उस खूबसूरत इनसान की कायल हूं, जो अपनी खूबसूरती से बिलकुल अनजान और बेपरवाह हो।

इस ब्लाग में मेरी कोशिश ऐसी पंखुड़ियों को सहेजने की है, जो शेफाली को शेफाली बना रही है। इस ब्लाग की पंखुड़ियां कभी संस्मरणों का अपनापन लिए होंगी तो कहीं डायरी सी सादगी लिए। हर एक पंखुड़ी कभी दिमाग तो कभी दिल की बात कहेगी। हर एक पंखुड़ी इंटरनेट पर उड़कर अपनी खूशबू आप तक पहुंचाएगी। आप इन पंखुड़ियो को फूल बनाने में मदद करेंगे....

....आपकी शेफाली