“कन्हाई कहीं नहीं जाती, हम जहाँ रहते हैं वहीं लोग दू और चार चक्का लगवाकर चलने को कहते हैं।”
किसी मुम्बईया मसाला फिल्म का ताली पीट संवाद सा लगने वाला ये वक्तव्य बिहार के शाहपुर ज़िले के एक गाँव में रहने वाली कन्हैया देवी का है। पीली साड़ी, चटख काला रंग, लाल बड़ी बिंदी, मझला कद काठी वाली साठ पार वयस वाली कन्हैया देवी से बात करना अपने आप में एक अलग अनुभव है। मुज़्फ़्फरपुर प्रवास के दौरान काफी देर मशक्कत करने के बाद ही मैं कन्हैया देवी तक पहुँच पाई थी। उसे संदेशा भेजा तो जवाब में शर्त आयी “गाँव की सड़क पर दो या चार चक्का गाड़ी भेजो तब ही आ पाएँगे”। थाना कांटी के अंदर आने वाले एक छोटे से गाँव में रहने वाली कन्हैया देवी पेशे से दाई है। पिछले 30-35 साल से आस-पास के गाँवों में जचकी कराने वाली कन्हैया से अब ज़्यादातर लोग जच्चा बच्चा की देखभाल की सेवाएं लेते हैं। कन्हैया देवी का परिचय देने वाले ने जब तक मुझे ये सब बताया तब तक मुझे सब सामान्य ही लगा था। अगले ही पल सिर्फ एक वाक्य ने मुझे भौंचक कर दिया। “कन्हाई नेत्रहीन है”। एक बार को अपने कानों पर विश्वास ही नहीं हुआ। बताने वाले ने फिर पुष्टि की “उसे कुछ दिखाई भी नहीं देता फिर भी यहाँ कन्हैया देवी को काफी लोग “डॉक्टर कन्हाई” कहकर पुकारते हैं।
कम उम्र में शादी, शादी के दो ही महीने में गर्भवति, प्रसव के दौरान गड़बड़ी से आँखों की रोशनी का चला जाना, ये सब बड़ी सहजता से बताने के बाद कन्हैया देवी बोली ‘ छुटपन में माँ के सथ लालाजी और साहूजी लोगों के यहाँ जचकी के बाद की सेवा के लिये जाती थी, फिर अपनी जचकी में समझ गई कि होता क्या है। पति ने अंधी बीवी को छोड़ दिया तो अपने बाबू को भूखा कैसे मरने देते? लग गए माँ के दिखाए रास्ते पर। ‘
कन्हाई बात करते करते मैथली बोलने लगती है तो कभी अंग्रेज़ी के शब्दों की जानकारी भी अपनी भाषा में प्रकट करने लगती है। “मैडमजी, अभी भी मोमडन(मुसलमान) घरों में जचकी घर पर ही होती है औऱ उनकी तो डॉक्टर अभी भी ये कन्हाई ही है।“ बिना आँखों के ये सब कैसे संभव हो पाता है? इस सवाल का जवाब वो तुरंत थमाती है. ’30-35 साल से तो अंदाज़े से देख ही रहे हैं। बच्चा सीधा है या उल्टा, अगर थोड़ा ‘डैमैज’ हो तो ठीक भी कर ही लेते हैं। महीने में एक दो जचकी के बल पर तो घर चल नहीं सकता इसलिए जच्चा बच्चा की मालिश भी कर रहे हैं अब तक तो हमारे अंधे होने से किसी को कोई समस्या नहीं आई।“
‘बिहार में करीब 80 हज़ार आशाओं के जाल, स्वास्थ्य केन्द्रों और आँगनवाड़ी कार्यकर्ताओं के होते हुए भी लोग आखिर कन्हाई को अब भी क्यों पूछते हैं?’ ये सवाल अब भी बरकरार था। जवाब कन्हाई के पास तैयार था, “हैल्थ सेंटर, डॉक्टर, नर्स सब हैं पर विश्वास भी तो कोई चीज़ है मैडमजी। लोग डिलीवरी हस्पताल में ही करा रहा है पर पहले हमारे पास आता है। हमको देखकर बताना होता है कि बच्चा तैयार है या नहीं? कितनी देर में जचकी होगी? कितना दर्द होगा? जब हम बोल देते हैं कि अब हस्पताल ले जाने की दरकार है तब लेकर जाते हैं।“
‘ सदर से काँटी तक हर डॉक्टर हर आँगनवाड़ी कार्यकर्ता कहता है कि दाई से ‘डिलीवरी’ मत कराओ, मालिश मत कराओ। हमको एलर्जी जैसा बना दिया है फिर भी लोग हमारे पास आता है। पढ़े लिखे नहीं हैं पर अनुभव का ज्ञान और लोगों का विश्वास तो है ही हमारे साथ./ हम तो कहते हैं हमको एक गाँव की “आशा” बनाओ हम हर जचकी हस्पताल में करवाकर ही मानेंगे। ये लोग एक अफसर से दूसरे अफसर के पास टहलाता रहता है बोलता तो कुछ है नहीं। हम तो कहते हैं कि ‘दाई’ को ये रवैया ही ज़िंदा रखे हुए है।“
कन्हाई की कही बात काफी हद तक वाजिब भी थी। अगर कन्हाई जैसी महिलाओं को स्वास्थय सेवाओं से जोड़ लिया जाए तो स्वास्थय सेवाओं में भी मज़बूती आएगी और आशा और विश्वास का संगम बेहतर परिणाम भी दे सकेगा। फिलहाल, बिहार में सालाना होने वाली 11 लाख जचकियों को हस्पतालों या स्वास्थय केन्द्रों में ही करवाने की ज़िम्मेदारी 80000 आशाएं निभाने की दिशा में प्रयासरत दिख रही हैं और कन्हाई जैसी दाईयां भी इस नेक काम का हिस्सा बनने को इच्छुक जान पड़ती हैं।
10:36 PM |
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