"मैंने सिर्फ उसका नाम सुना था ,फिर फ़ोन नंबर भी मिल गया.सोचा क्यूँ न बात की जाए.फ़ोन मिलाया तो लगा कि जैसे किसी अधेड़ उमरी जीवंत आवाज़ से मुलाक़ात हुई हो."बोला, शेफालीजी ऐसे कैसे बात करूं?आइये मिल के बात करते हैं.उसके बुलाने में अपनापन था.मैंने पहली फुरसत में ही उससे मुलाक़ात तय की.दक्षिण दिल्ली की एक संभ्रांत कालोनी में उसका दफ्तर था जहाँ वो मेरा स्वागत करने पहले से मौजूद था.दरवाज़े पर मुलाक़ात हुई तो कद काठी से सेना का जवान सा लगा.हाथ मिलाकर बोला "मैडम जी ,आप फ़ोन पर मुझसे ही बात कर रही थी ,मैं ही हूँ हरीसिंह.
मैं जल्दबाजी में थी ,पर वो....... बिलकुल निश्चिन्त .उसने मुझे पहले अपना ऑफिस घुमाया,दो कप चाय बनाने के लिए कैंटीन वाले को आवाज़ लगायी,और फिर बातों में लग गया.मैं उसे बार बार टोक रही थी,पर वो था कि उसकी बातें थमने का नाम ही नहीं ले रही थी.
आखिरकार अपने ऑफिस के सभी पोस्टर्स और "नेशनल एड्स कण्ट्रोल बोर्ड "की सभी बातें बताने के बाद वो थक गया.बैठा ....और ३-४ कैप्सूल्स खाने के बाद बोला-"अब कहिये मैं आपकी क्या मदद कर सकता हूँ?"मैंने कहा...रेडियो कार्यक्रम बनाने के लिए HIV PATIENT से मिलना है. वो तपाक से बोला "मिल तो रही हैं आप'.मैं सकते में थी ,पहले ऐसे जतलाया कि सुनाई नहीं दिया और फिर जब वो दुबारा ये ही बोला तो सीधे से कह डाला "क्या आपसे खुल के बात हो सकती है?"उसका जवाब था कि मैं तो जब से आप आयीं हैं तब ही से "खुल के " बात कर रहा हूँ.
खैर..बातचीत शुरू हुई.उसने अपनी रिहाइश दिल्ली की ही बताई.छोटी उम्र में शादी,पहलवानी का शौक,माँ का गुज़र जाना,दो बच्चों का ज़िन्दगी में आना,अच्छी बीवी सब कुछ....साथ ही साथ HIV निकलना ...और इलाज का संघर्ष भी.
इस पूरी बातचीत के दौरान मेरे अन्दर का मीडियाकर्मी हैरान और परेशान रहा.उसकी हंसी......उसकी बुलंद आवाज़.....NACO की तारीफ़ में कहे जा रहे शब्द मेरी बेचैनी बढ़ा रहे थे."इसे क्या किसी ने पढाया है , साक्षात्कार कैसे दिए जाते हैं?बोलना क्या है?बैठना कैसे है?"इस तरह के भाव ज़ेहन में आकर जाने का नाम नहीं ले रहे थे .कभी कभार खुद की सोच पर शर्म सी भी आई.लगा"एक इंसान बीमार है पर खुश भी तो इसमें तकलीफ क्या है?"उसने मुझे बताया कि दूसरे चरण कि दवाओं ने अब उस पर असर करना बंद कर दिया है.एक लड़की कॉलेज में भी है.वो खुद HIV PATIENTS को जागृत बनाने के कार्य में सक्रिय है.तीसरे चरण कि दावा शुरू करनी है......................................मतलब?
"मतलब..................इसके बाद कुछ और महीने ....दिन या साल/"उसने बिना ठिठके जवाब दिया.जब आँख न खुले....समझो.....चले !
मैं सकते में थी ,कोई इस तरह की बात कहते हुए इतना सहज कैसे हो सकता है?मेरे सवाल ...और उनके शब्द छोटे पढने लगे."क्या कोई मलाल?"वो बोला......सिर्फ एक!
मैंने पूछा...."क्या"? वो बोला....छोटी बिटिया!
"क्यूँ"....वो बोला....रोज़ हाथ में एक गिलास पानी और मेरी दवाएं लेकर मेरे पास आती है ,मेरा ध्यान रखती है.
"तो मलाल कैसा?"............उसकी एक आँख से आंसू की सिर्फ एक बूँद टपकी...जैसे वो संभाल न पाया हो......".वो दवा और वो गिलास मेरे हाथ में होना चाहिए था."
"क्यूँ?"................................वो अर्धविक्षिप्त है......बीवी ने मजबूरी में.....उसके और मेरे इलाज के बीच मेरे इलाज को चुना और पैसे मेरी ज़िन्दगी लम्बी करने को खर्च किये गए.
"फिर?"...........................अब वो १७ साल की है,मैं तो चला जाऊंगा....पर उसके लिए कुछ नहीं कर पाया.लोग अपने बच्चों और परिवार के भविष्य के लिए इंतजाम करके जाते हैं.मैं लाखों का कर्जा इनके लिए छोड़ कर जाऊंगा.
अचानक वो संभला ......बोला......पर शेफालीजी.......अब जब तक ज़िन्दगी है........मैं जीयूँगा और कई साल जियूँगा.....मैं अपना पूरा ध्यान रख रहा हूँ ताकि तकलीफ बढे नहीं.मुझे अपनी जिम्मेदारियों का भास् है.
उसके आंसुओं ने जैसे मुझे अपराधबोध से भर दिया....."आखिर क्या ज़रुरत थी इस सवाल की?क्या वो मुस्कुराता चेहरा बर्दाश्त नहीं हो रहा था?"
पर फिर यकायक लगा......कितनी शिकायतें होती हैं हमें कभी खुद से, ज़िन्दगी से,माँ-बाप से,अधिकारियों से,बच्चों से,तंत्र से..........कितने खुश हैं हम.हर रात मौत के और नज़दीक आने का भय नहीं,किसीकी आँखों से टपकते आंसुओं में बहती दिखती खुद की मौत नहीं.किसी के सिंदूर में दीखता लाखों का कर्जा नहीं.
फिर हम अपनी ज़िन्दगी में छोटी छोटी बातों पर मायूस क्यूँ हैं?जब हरीसिंह इतनी बीमारियों से जूझने के बाद......अपनी मौत को पल पल करीब आता देखने के बाद अपनी ज़िन्दगी से कोई ख़ास शिकायत नहीं करता इसे बस जी भर के जी लेना चाहता है.तो......हम क्यूँ नहीं?
मैं जल्दबाजी में थी ,पर वो....... बिलकुल निश्चिन्त .उसने मुझे पहले अपना ऑफिस घुमाया,दो कप चाय बनाने के लिए कैंटीन वाले को आवाज़ लगायी,और फिर बातों में लग गया.मैं उसे बार बार टोक रही थी,पर वो था कि उसकी बातें थमने का नाम ही नहीं ले रही थी.
आखिरकार अपने ऑफिस के सभी पोस्टर्स और "नेशनल एड्स कण्ट्रोल बोर्ड "की सभी बातें बताने के बाद वो थक गया.बैठा ....और ३-४ कैप्सूल्स खाने के बाद बोला-"अब कहिये मैं आपकी क्या मदद कर सकता हूँ?"मैंने कहा...रेडियो कार्यक्रम बनाने के लिए HIV PATIENT से मिलना है. वो तपाक से बोला "मिल तो रही हैं आप'.मैं सकते में थी ,पहले ऐसे जतलाया कि सुनाई नहीं दिया और फिर जब वो दुबारा ये ही बोला तो सीधे से कह डाला "क्या आपसे खुल के बात हो सकती है?"उसका जवाब था कि मैं तो जब से आप आयीं हैं तब ही से "खुल के " बात कर रहा हूँ.
खैर..बातचीत शुरू हुई.उसने अपनी रिहाइश दिल्ली की ही बताई.छोटी उम्र में शादी,पहलवानी का शौक,माँ का गुज़र जाना,दो बच्चों का ज़िन्दगी में आना,अच्छी बीवी सब कुछ....साथ ही साथ HIV निकलना ...और इलाज का संघर्ष भी.
इस पूरी बातचीत के दौरान मेरे अन्दर का मीडियाकर्मी हैरान और परेशान रहा.उसकी हंसी......उसकी बुलंद आवाज़.....NACO की तारीफ़ में कहे जा रहे शब्द मेरी बेचैनी बढ़ा रहे थे."इसे क्या किसी ने पढाया है , साक्षात्कार कैसे दिए जाते हैं?बोलना क्या है?बैठना कैसे है?"इस तरह के भाव ज़ेहन में आकर जाने का नाम नहीं ले रहे थे .कभी कभार खुद की सोच पर शर्म सी भी आई.लगा"एक इंसान बीमार है पर खुश भी तो इसमें तकलीफ क्या है?"उसने मुझे बताया कि दूसरे चरण कि दवाओं ने अब उस पर असर करना बंद कर दिया है.एक लड़की कॉलेज में भी है.वो खुद HIV PATIENTS को जागृत बनाने के कार्य में सक्रिय है.तीसरे चरण कि दावा शुरू करनी है......................................मतलब?
"मतलब..................इसके बाद कुछ और महीने ....दिन या साल/"उसने बिना ठिठके जवाब दिया.जब आँख न खुले....समझो.....चले !
मैं सकते में थी ,कोई इस तरह की बात कहते हुए इतना सहज कैसे हो सकता है?मेरे सवाल ...और उनके शब्द छोटे पढने लगे."क्या कोई मलाल?"वो बोला......सिर्फ एक!
मैंने पूछा...."क्या"? वो बोला....छोटी बिटिया!
"क्यूँ"....वो बोला....रोज़ हाथ में एक गिलास पानी और मेरी दवाएं लेकर मेरे पास आती है ,मेरा ध्यान रखती है.
"तो मलाल कैसा?"............उसकी एक आँख से आंसू की सिर्फ एक बूँद टपकी...जैसे वो संभाल न पाया हो......".वो दवा और वो गिलास मेरे हाथ में होना चाहिए था."
"क्यूँ?"................................वो अर्धविक्षिप्त है......बीवी ने मजबूरी में.....उसके और मेरे इलाज के बीच मेरे इलाज को चुना और पैसे मेरी ज़िन्दगी लम्बी करने को खर्च किये गए.
"फिर?"...........................अब वो १७ साल की है,मैं तो चला जाऊंगा....पर उसके लिए कुछ नहीं कर पाया.लोग अपने बच्चों और परिवार के भविष्य के लिए इंतजाम करके जाते हैं.मैं लाखों का कर्जा इनके लिए छोड़ कर जाऊंगा.
अचानक वो संभला ......बोला......पर शेफालीजी.......अब जब तक ज़िन्दगी है........मैं जीयूँगा और कई साल जियूँगा.....मैं अपना पूरा ध्यान रख रहा हूँ ताकि तकलीफ बढे नहीं.मुझे अपनी जिम्मेदारियों का भास् है.
उसके आंसुओं ने जैसे मुझे अपराधबोध से भर दिया....."आखिर क्या ज़रुरत थी इस सवाल की?क्या वो मुस्कुराता चेहरा बर्दाश्त नहीं हो रहा था?"
पर फिर यकायक लगा......कितनी शिकायतें होती हैं हमें कभी खुद से, ज़िन्दगी से,माँ-बाप से,अधिकारियों से,बच्चों से,तंत्र से..........कितने खुश हैं हम.हर रात मौत के और नज़दीक आने का भय नहीं,किसीकी आँखों से टपकते आंसुओं में बहती दिखती खुद की मौत नहीं.किसी के सिंदूर में दीखता लाखों का कर्जा नहीं.
फिर हम अपनी ज़िन्दगी में छोटी छोटी बातों पर मायूस क्यूँ हैं?जब हरीसिंह इतनी बीमारियों से जूझने के बाद......अपनी मौत को पल पल करीब आता देखने के बाद अपनी ज़िन्दगी से कोई ख़ास शिकायत नहीं करता इसे बस जी भर के जी लेना चाहता है.तो......हम क्यूँ नहीं?
8:57 AM |
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