एक आधी बनी स्कूल इमारत की बस्ती में बैठे ६० बच्चे कल अपनी मैडम लोगों से एक अलग ही पाठ पढने में जुटे थे /उन्हें बताया जा रहा था की रेडियो वाले दीदी भैया आयेंगे तो उनके सामने दुआ सलाम कैसे करनी है,रेडिओ पर बोलने वाली आवाज़ दर असल उन्ही दीदी भैय्या की होती है ,बच्चे हैरान थे की रेडिओ पर बोलने वाले क्या इतने खाली होते हैं कि रांची से यहाँ इतने अन्दर टूटी फूटी सडकों को लांघ के हमसे मिलने आ रहे हैं/बहरहाल,हम लोग अपने ऍफ़ एम् रेडिओ कि ओर से रांची से खूँटी जाते हुए हटिया से थोडा आगे चलकर एक कटे हुए रास्ते पर चल पढ़े थे /करीब ५-६ किलोमीटर के ऊबध खाबड़ रस्ते को पार कर हम पहुंचे गाँव "मुन्दिटोला"/
इस गाँव में घर इतनी दूर थे कि हम अचरज में थे कि स्कूल वालों के लिए बच्चों को इकठा करना कितना मुश्किल होगा.खैर,वहां जाने पर ३ साल से १२ साल तक के बच्चे एक ही कमरे में पढ़ते दिखे.घुसते ही हमारा स्वागत एक स्वर में किये गए अभिवादन से हुआ/ साफ़ था कि बच्चों की  ट्यूशन जम के ली गयी है/एक एक बच्चा  हमें अपनी नज़रों से नाख़ून से सिर तक नाप रहा था.हेडफोन .रेकॉर्डर,mike सबको छू कर देखने कि चाह उनकी आँखों में साफ़ थी.वो हमें ऐसे देख रहे थे कि जैसे किसी दूसरे गृह के प्राणियों को देख रहे हों /
जब मैंने बच्चों से बात की तो हर एक बच्चा अपना गाना सुनाना चाहता था . शहर के लोगों के कैमरे में वो अपनी तस्वीर शहर भेजना चाहता था.

दूसरी ओर, स्कूल बिल्डिंग निर्माण से ज्यादा  मुस्तैदी से शौचालय निर्माण में मजदूर जुटे हुए थे /हम खुश थे कि बच्चों के लिए शौचालय बन रहा है...बाद में स्कूल संचालक ने बताया कि दर असल कुछ फिरंगी १५ दिन बाद इस स्कूल भवन और परियोजना का निरीक्षण करने आने वाले हैं इसलिए शौचालय निर्माण बेहद ज़रूरी हो गया है.हमने पूछा...बच्चे पानी कहाँ पीते हैं?जवाब मिला...पास ही नदी के पास जो गड्ढों  में पानी जमा है वहां ऊपर का पानी पिया जा सकता है या फिर स्कूल परिसर में जो कुआं है वहां से भी पानी निकालकर  पिया जा सकता है.हमने कुआं और पानी दोनों देखा ...पानी का पीलापन हमारी प्यास सुखा गया.

 
जल  ,जंगले ज़मीन की लड़ाई लड़ने वाले आदिवासी अब झारखण्ड बन जाने के बाद भी कमोबेश दोयम दर्जे कि ज़िन्दगी जी रहे हैं.हम सब नक्सल्वाद को लेकर चिंतित तो हैं पर चिंता आज भी विदेशियों और उनकी ज़रूरतों की ही ज्यादा है.हम चाहते हैं कि सुविधाएं पहुंचें पर सड़कें आज भी इन् गाँवों तक नहीं पहुंची तो सुविधाएं तो न जाने कब पहुंचें!
रेडिओ कार्यक्रम के बहाने ही सही.पर हम "मुन्द्रितोला" तक पहुँच ही गए....हमने कुछ सपनीली आँखें....खूब सारी इच्छाएं और तंत्र की मजबूरी देखी/कुछ देर के लिए बच्चे मुस्कुराये भी....पर पता नहीं कब ये खिल खिला पायेंगे.
मेरे लिए ये गाँव एक बहुत  बड़ा सबक है....ये समझ लेने का कि हमारा बचपन और हमारे आसपास शहरों में पल रहा बचपन काफी खुशनसीब रहा है. कि इसे इन टूटी फूटी सड़कों से किसी शहरी  के आने का इंतज़ार नहीं
 करना पड़ रहा /

Comments (4)

On March 7, 2011 at 10:23 PM , Anonymous said...

"दिन के उजाले में दुनिया का हर फूल ख़ूबसूरती बिखेरता है ,बात तो तब बनती है जब कोई फूल अंधेरे को ललकार कर कहे कि मैं तुम्हे महकाना चाहता हूं,तुमसे बिना डरे,खिलना और सुबह का इंतजार करना चाहता हूं"

बड़ी बात

 
On March 8, 2011 at 1:36 PM , हरीश सिंह said...

ब्लॉग लेखन में आपका स्वागत, हिंदी लेखन को बढ़ावा देने के लिए तथा पत्येक भारतीय लेखको को एक मंच पर लाने के लिए " भारतीय ब्लॉग लेखक मंच" का गठन किया गया है. आपसे अनुरोध है कि इस मंच का followers बन हमारा उत्साहवर्धन करें , साथ ही इस मंच के लेखक बन कर हिंदी लेखन को नई दिशा दे. हम आपका इंतजार करेंगे.
हरीश सिंह.... संस्थापक/संयोजक "भारतीय ब्लॉग लेखक मंच"
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On March 9, 2011 at 11:01 PM , shefali said...

aap sabhi ka dhanyawaad...hausla badhane k liye.

 
On March 15, 2011 at 7:22 PM , Nitin Kr. Sharma said...

Bohut Khub...Mam Ji