पिछले दिनों मेरे रांची दौरे के दौरान एक बार फिर मेरी उससे मुलाक़ात हुई.एक बार फिर जी चाहा कि समय या तो रुक जाए या फिर कम से कम १५ साल पीछे चला जाए.मेरा मन बेचैन हो उठा.मैं चाहती थी उसकी छाँव में बैठना,कुछ शरारतें,कुछ हरकतें याद करना.स्कूल के दिनों से ही मुझे वो बहुत  अच्छा लगता था.आज इतने साल बाद मिलने पर, उससे जी भर मिल लेने की इच्छा पर काबू पाना मुश्किल लग रहा था.ऐसा लगा कि जैसे कोई सपना जाग गया हो.
स्मृतियाँ जैसे सामने टहलने लगी...छत्तीसगढ़ की मिटटी  की सौंधी खुशबू अचानक झारखण्ड में याद आई.याद आया "कोरबा" और वहीँ स्थित NTPC TOWNSHIP का केंद्रीय विद्यालय परिसर और उसको दोनों ओर से घेरे हुए खेल का विशाल मैदान.कभी कभार खिडकियों से बाहर सड़क पर गाड़ियों की आवाजाही देखते बच्चों में, एक मैं भी हुआ करती थी.फिर यकायक याद आई वो अजीब सी बात जो एक दिन मेरी एक बेहद घनिष्ट सहेली ने उन्ही खिडकियों से बाहर झांकते हुए  समझाई थी.बोली....."अपने स्कूल को चारों ओर से घेरे पलाश के पेड़ों को देख रही हो....इनके कारण ही हम लोग खुश हैं.जितने पलाश आस पास रहेंगे उतनी खुशियाँ हमारी होंगी". अब सोचने में कभी कभी शर्मिंदगी भी होती है..पर तब चुपके से मैं स्कूल की छुट्टी होने पर हर एक पेड़ के नीचे खड़े होकर उन् फूलों तक पहुँचने की कोशिश भी करने लगी थी ...ये सिलसिला तब तक चला जब तक मैंने ३-४ पलाश के खूबसूरत फूल सुखा कर अपनी कॉपी के पन्नों के बीच में दबा नहीं लिए.शायद ,वो खुशियों पर कब्ज़ा कर लेने की एक कोशिश भर थी.होली के बीतने के कुछ ही दिनों में ये पलाश भी गायब हो जाते और मैं अपने में खुश रहती कि मेरे पास वो पलाश फिर भी हैं.

उस दिन रांची से खूँटी की ओर जाते वक़्त सड़क के दोनों ओर मेरी खुशियों का वो दोस्त खड़ा मिल गया  था.उसके पास कई सवाल मेरे लिए तैयार थे .ऐसा लगा जैसे कह रहा हो "मुझे छोड़ कर तुम दिल्ली में कहाँ गुम हो गयीं?मैं वही तो हूँ जिसे अपनी कॉपी के पन्नों के बीच देख कर तुम गर्वीली मुस्कान बिखेर देती थी.क्या अब तुम मुझे भूल चुकी हो या फिर मुस्कुराने का कोई और बहाना ढून्ढ लिया है शहर में.?"
बहुत मन हुआ कि ड्राईवर से निवेदन करूं कि वो कुछ देर को गाडी उस सड़क पर कहीं किनारे खड़ी कर ले.....ताकि मैं इन् चटक पलाश के फूलों में एक बार फिर बचपन और कोरबा में छूट चुकी उस गर्वीली मुस्कान को अपने होठों पर सजा सकूं.
यहाँ दिल्ली में सड़कों के किनारे लगे होर्डिंग्स  और शहरी पेड़ों के बीच आज रांची से वापिस लौटकर मुझे मेरा वो बिछुड़ा दोस्त बहुत याद आ रहा .शायद पलाश या गुलमोहर जैसे दोस्तों की कमी कोई भी खूबसुरत होर्डिंग या करीने से लगाये गए पेड़ पूरी नहीं कर सकते.पलाश ...एक लम्बे इंतज़ार के बाद मिली ख़ुशी का परिचायक है,पर हाँ अब १५ साल बाद पूरी समझदारी से मैं ये ज़रूर कह सकती हूँ की खुशियों को कॉपी के पन्नों या फिर कहीं और क़ैद करना नामुमकिन है.
 
खैर....पलाश तुम खिलते रहना और यूँ ही मिलते रहना ताकि मैं मुस्कुराती रहूँ.

Comments (2)

On March 18, 2011 at 1:41 PM , ज़ाहिर है said...

कम से कम अपने लेखन में पलाश खिलाती रहना

 
On February 6, 2019 at 9:29 PM , mridu said...

Itne saalo se aap likh rahi ho par aaj jake padha...bahut khoobsurti se likha hai..padhti hu to lagta hai jaise aap mere samne baith kar apni baatein bol rahi hu..woh aapke saath sab pal samne aa jate hai..